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अध्याय-एक
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥3॥
आचार्य = हे आचार्य!, तव = आपके, धीमता = बुद्धिमान्‌,  शिष्येण =शिष्य, द्रुपदपुत्रेण =द्रुपदपुत्र,  व्यूढाम्‌ = धृष्टद्युम्नके व्यूहरचनासे खडी हुई, पाण्डुपुत्राणाम्‌ = पाण्डवोंकी, एताम्‌ = इस, महतीम्‌ = बड़ी भारी, चमूम्‌ = सेनाको पश्य = देखिये। 

ब्याखा-- आचार्य '-द्रोणके लिये ' आचार्य” सम्बोधन देनेमें दुर्योधनका यह भाव मालूम देता है कि आप हम सबके--कौरवों और पाण्डवोंके आचार्य हैं। शस्त्रविद्या सिखानेवाले होनेसे आप सबके गुरु हैं। इसलिये आपके मनमें किसीका पक्ष या आग्रह नहीं होना चाहिये।

तब शिष्येण धीमता’–इन पदोंका प्रयोग करनेमें दुर्योधनका भाव यह है कि आप इतने सरल हैं कि अपने मारनेके लिये पैदा होनेवाले धुृष्ट््युम्म को भी आपने अस्त्र- शस्त्रकी विद्या सिखायी है; और वह आपका शिष्य धृष्टद्युम्न इतना बुद्धिमान्‌ है कि उसने आपको मारनेके लिये आपसे ही अस्त्र-शस्त्रकी विद्या सीखी है।


द्रपदपत्रेण ‘–यह पद कहनेका आशय है कि आपको मारनेके उद्देश्यको लेकर ही द्वुपदने याज और उपयाज नामक ब्राह्मणोंसे यज्ञ कराया, जिससे धृष्टद्युम्न पैदा हुआ। वही यह द्वुपदपुत्र धृष्ट््युम्म आपके सामने (प्रतिपक्षमें) सेनापतिके रूपमें खड़ा है। यद्यपि दुर्योधन यहाँ ‘द्रुपदपुत्र ‘के स्थानपर ‘ धृष्टद्युम्न! भी कह सकता था, तथापि द्रोणाचार्यके साथ द्वुपद जो बैर रखता था, उस वैरभावको याद दिलानेके लिये दुर्योधन यहाँ “द्रुपदपुत्रेण’ शब्दका प्रयोग करता है कि अब वैर निकालनेका अच्छा मौका है।


“पाण्डुपुत्राणाम्‌ एतां व्यूढां महतीं चमूं पश्य ‘— द्रुपदपुत्रके द्वारा पाण्डबोंकी इस व्यूहाकार खड़ी हुई बड़ी भारी सेनाको देखिये। तात्पर्य है कि जिन पाण्डबोंपर आप स्नेह रखते हैं, उन्हीं पाण्डवोंने आपके प्रतिपक्षमें खास आपको मारनेवाले द्वुपदपुत्रकों सेनापति बनाकर व्यूह- रचना करनेका अधिकार दिया है। अगर पाण्डब आपसे स्नेह रखते तो कम-से-कम आपको मारनेवालेको तो अपनी सेनाका मख्य सेनापति नहीं बनाते, इतना अधिकार तो नहीं देते। परन्तु सब कुछ जानते हुए भी उन्होंने उसीको सेनापति बनाया है। यद्यपि कौरवोंकी अपेक्षा पाण्डवोंकी सेना संख्यामें कम थी अर्थात्‌ कौरवोंकी सेना ग्यारह अक्षौहिणी और पाण्डवोंकी सेना सात अक्षौहिणी थी, तथापि दुर्योधन पाण्डवोंकी सेनाको बड़ी भारी बता रहा है। पाण्डवोंकी सेनाको बड़ी भारी कहनेमें दो भाव मालूम देते हैं– (१) पाण्डवोंकी सेना ऐसे ढंगसे व्यूहाकार खड़ी हुई थी, जिससे दुर्योधनको थोड़ी सेना भी बहुत बड़ी दीख रही थी और (२) पाण्डव-सेनामें सब-के-सब योद्धा एक मतके थे। इस एकताके कारण पाण्डवोंकी थोड़ी सेना भी बलमें, उत्साहमें बड़ी मालूम दे रही थी। ऐसी सेनाको दिखाकर दुर्योधन द्रोणाचार्यसे यह कहना चाहता है कि युद्ध करते समय आप इस सेनाको सामान्य और छोटी न समझें । आप विशेष बल लगाकर सावधानीसे युद्ध करें। पाण्डवोंका सेनापति है तो आपका शिष्य द्वुपदपुत्र ही; अत: उसपर विजय करना आपके लिये कौन-सी बड़ी बात है!